लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
अध्याय 3
मि. जॉन सेवक
का बँगला सिगरा
में था। उनके
पिता मि. ईश्वर
सेवक ने सेना-विभाग में पेंशन
पाने के बाद
वहीं मकान बनवा
लिया था, और
अब तक उसके
स्वामी थे। इसके
आगे उनके पुरखों
का पता नहीं
चलता, और न
हमें उसकी खोज
करने की विशेष
जरूरत है। हाँ
इतनी बात अवश्य
निश्चित है कि
प्रभु ईसा की
शरण जाने का
गौरव ईश्वर सेवक
को नहीं, उनके
पिता को था।
ईश्वर सेवक को
अब भी अपना
बाल्य जीवन कुछ-कुछ याद
आता था, जब
वह अपनी माता
के साथ गंगास्नान
को जाया करते
थे। माता की
दाह-क्रिया की
स्मृति भी अभी
न भूली थी।
माता के देहांत
के बाद उन्हें
याद आता था
कि मेरे घर
में कई सैनिक
घुस आए थे,
और मेरे पिता
को पकड़कर ले
गए थे। इसके
बाद स्मृति विशृंखल
हो जाती थी।
हाँ, उनके गोरे
रंग और आकृति
से यह सहज
ही अनुमान किया
जा सकता था
कि वह उच्चवंशीय
थे, और कदाचित्
इसी सूबे में
उनका पूर्व निवास
भी था।
यह बँगला उस जमाने
में बना था,
जब सिगरा में
भूमि का इतना
आदर न था।
अहाते में फूल-पत्तिायों की जगह
शाक-भाजी और
फलों के वृक्ष
थे। यहाँ तक
कि गमलों में
भी सुरुचि की
अपेक्षा उपयोगिता पर अधिक
धयान दिया गया
था। बेलें परवल,
कद्दू, कुँदरू, सेम आदि
की थीं, जिनसे
बँगले की शोभा
होती थी और
फल भी मिलता
था। एक किनारे
खपरैल का बरामदा
था, जिसमें गाय-भैंस पली
हुई थीं। दूसरी
ओर अस्तबल था।
मोटर का शौक
न बाप को
था, न बेटे
को। फिटन रखने
में किफायत भी
थी और आराम
भी। ईश्वर सेवक
को तो मोटरों
से चिढ़ थी।
उनके शोर से
उनकी शांति में
विघ्न पड़ता था।
फिटन का घोड़ा
अहाते में एक
लम्बी रस्सी से
बाँधकर छोड़ दिया
जाता था। अस्तबल
से बाग के
लिए खाद निकल
आती थी, और
केवल एक साईस
से काम चल
जाता। ईश्वर सेवक
गृह-प्रबंध में
निपुण थे, और
गृह-कार्यों में
उनका उत्साह लेश-मात्रा भी कम
न हुआ था।
उनकी आराम-कुर्सी
बंँगले के सायबान
में पड़ी रहती
थी। उस पर
वह सुबह से
शाम तक बैठे
जॉन सेवक की
फिजूलखर्ची और घर
की बरबादी का
रोना रोया करते
थे। वह अब
भी नियमित रूप
से पुत्रा को
घंटे-दो-घंटे
उपदेश दिया करते
थे, और शायद
इसी उपदेश का
फल था कि
जॉन सेवक का
धान और मान
दिनोंदिन बढ़ता जाता था।